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ऋषि मुनियों के आश्रमों से जुड़ी है आश्रम परंपरा

– हरिद्वार में थे सप्तऋषियों के आश्रम, इन्हीं से निकले समस्त गोत्र

हरिद्वार। भारत की आश्रम व्यवस्था बहुत पुरानी है। मठ, अखाड़े और साधु
संतई बहुत बाद की बातें हैं। अनादि आश्रमों में ऋषियों के ज्ञानकुंज हुआ
करते थे। ऋषियों के नामों से मुख्य गोत्र निकले और उन आश्रमधारी ऋषि
शिष्यों के उपाश्रमों से उपगोत्र। सनातन भारतीय जीवंत रसधारा की वाहक है
आश्रम परम्परा। वेद, पुराण, उपनिषद और अध्यात्म दर्शन का चिंतन मनन करने
वाले प्रकृति की गोद में बसे ऋषियों ने ज्ञान की ऐसी गंगा बहाई कि समस्त
आर्यावर्त सृष्टि के मूल से जुड़ गया। अनन्त तत्वों से मानव मूल्यों का
मिलन आर्यावर्त भारत को आध्यत्म की राजधानी कहा जाता है। देवभूमि
उत्तराखंड इस राजधानी का हृदय क्षेत्र है।

वस्तुतः ईंट, मिट्टी, सीमेंट, गारा से बनी इमारत को आश्रम नहीं कहा जाता।
हमारे यहां तो शास्त्रों ने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास को
ही चार प्रकार के आश्रमों में विभक्त किया है। ये चारों अनादि आश्रम हैं।
इस ज्ञान की खोज उत्तराखंड की इसी धरती पर की गई। प्रचीनकाल से वानप्रस्थ
और संन्यास की अवस्था को आश्रम से जोड़ा गया। अवस्था आने पर विरक्त लोग वन
क्षेत्र में चले जाते थे और कुटिया बनाकर रहते थे। ये कुटियाएं और
पर्णकुटियाएं ही भारतवर्ष के आश्रम कहलाते थे। तपोभूमि उत्तराखंड में ऐसे
आश्रम हरिद्वार-ऋषिकेश से लेकर सुदूर पहाड़ों तक फैले हुए थे। इस
ब्रह्मांड को जानने की जिज्ञासा रहने वाले संन्यस्त ऐसे निर्जन वनों में
कुटी रूपी आश्रम बनाते, जहां प्राणी का प्रवेश न हो। बद्रीनाथ से ऊपर
वसुधारा, सरस्वती और अलकापुरी के निर्जन क्षेत्रों में वैदिक ऋचाओं का
गान करने वाले ऋषियों के आश्रम थे। इन आश्रमों में ग्रह नक्षत्रों पर उसी
प्रकार शोध हुए, जैसे आज इसरो और नासा में किये जाते हैं।

चारों वेदों का ज्ञान ब्रह्मा के मुख से इसी हिमालय में प्रस्फुटित हुआ।
ऋषियों ने उसे स्मृतियों में निबद्ध किया। कालांतर में महर्षि वेदव्यास
ने श्रीगणेश के माध्यम से समस्त ग्रन्थ इसी भूमि पर लिपिबद्ध कराए।
गणेशजी की एक शर्त थी कि जब तक आप बोलते रहेंगे, वे लिखते रहेंगे। यदि
रुके तो अंतर्ध्यान हो जाएंगे। इतिहास प्रमाण है कि वेदव्यास 18 दिनों तक
बिना अन्न जल ग्रहण किये बोलते रहे और गणेश लिखते रहे। उसी कालखंड में
समस्त वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, श्रीमद्भागवत आदि का लेखन ज्योतिर्मठ
बद्रीनाथ के व्यास आश्रम में हुआ। अनादि शंकराचार्य ने भी वर्तमान जोशीमठ
में ज्योतिर्मठ आश्रम की स्थापना की।

हरिद्वार में सप्तऋषियों यथा भारद्वाज, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, कश्यप,
जमदग्नि और वशिष्ठ के सात आश्रम थे। इन आश्रमों में ही गुरुमाताएं रहा
करती थीं। यहीं सात ऋषियों के सात गुरुकुल थे, जिनमें देश भर के
विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। इन्हीं आश्रमों से गोत्र परम्परा
प्रारम्भ हुई। त्रेतायुग में जब भगीरथ अपने पुरखों के उद्धार हेतु गंगा
लाए, तब सप्तऋषियों को सम्मान देते हुए गंगा सातों आश्रमों और गुरुकुलों
को छोड़ते हुए बहीं। आज भी इस सप्तऋषि क्षेत्र में गंगा की सप्तधाराएं
देखी जा सकती हैं।

जहां तक आधुनिक आश्रमों का संबंध है, यह नई अवधारणा है। वर्तमान स्वरूप
सौ वर्ष से पुराना नहीं। संदीपन ऋषि, पतंजलि, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य,
रामानंदाचार्य आदि के आश्रम ज्ञान के केंद्र थे, घास फूंस की
पर्णकुटियाओं में चलते थे। बाद में शंकराचार्य ने दसनामी संन्यास परम्परा
शुरू की जो बाद में सात अखाड़ों के रूप में सामने आई। कालांतर में बैरागी
विचारधारा का प्रतिपादन जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने किया और बैरागियों के
तीन अखाड़े बने। इनमें श्रीचंद महाराज के दो अखाड़ों और सिक्ख पंथ के एक
अखाड़े का समावेश होने से अखाड़ों की कुल संख्या 13 हो गई। इन्हीं अखाड़ों
के अलग अलग मठ बनते चले गए। संतई की वर्तमान धारा आश्रम प्रधान है। इनमें
सेवा के अनेक प्रकल्प चलते हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश तो आश्रमों के गढ़
हैं। नजदीक नजदीक बसे इन दोनों नगरों में करीब दो हजार आश्रम होंगे।
लेकिन आश्रमों की वर्तमान धारा बिल्कुल अलग है। अब आश्रमों की संस्कृति
भी सितारा होटलों से मेल खाती है। बहरहाल इन आश्रमों में अन्नक्षेत्र,
गौशाला, कथा, प्रवचन आज भी होते हैं।

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